देवकली मंदिर के इतिहास में छिपे हैं अनेक रहस्य

महाशिवरात्रि पर विशेष
ग्लोबल टाइम्स-7, डिजिटल न्यूज़ नेटवर्क, जिला ब्यूरोचीफ राम प्रकाश शर्मा औरैया।
औरैया,17 फरवरी 2023*। *शहर के मोहल्ला बनारसीदास जिलाजजी के पीछे निवासी राम प्रकाश शर्मा जोकि ग्लोबल टाइम्स-7, डिजिटल न्यूज़ नेटवर्क, के जिला ब्यूरोचीफ है, के द्वारा अपनी लोपर्णा से उपजी इस रोचक लेखनी में इतिहास तथा जनश्रुति का समावेश किया गया है। जिसमें द्वापर से लेकर इतिहास की अद्वितीय तथा पौराणिक कथाओं पर आधारित किया गया है, जिसे जानकर हमारे पाठक बंधुओं को उत्सुकता होगी ऐसा हमारा विश्वास है।*
देवकली मंदिर का पहला भाग औरैया जिला मुख्यालय ककोर से लेकर चलते हैं। नगर के दक्षिण में औरैया शहर करीब 9 किलोमीटर एवं यहां (औरैया) से देवकली मंदिर करीब 4 किलोमीटर की दूरी पर बना हुआ है, यही से दक्षिण की ओर चंद मीटर की दूरी पर यमुना नदी बह रही है, जिसके किनारे शेरगढ़ घाट बना हुआ है, और बिहड़ी क्षेत्र में महामाया मंगलाकाली का एक भव्य मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर के विषय में तरह-तरह की कहानियां एवं किवदंतिया प्रचलित हैं। इसी तरह की कहानियां जन जनश्रुतियों जो देवकली मंदिर के विषय में लेखक को जानकारी प्राप्त हुई है, वह काफी रोचक है। इसके अतिरिक्त हम अपने पाठकों से निवेदन करेंगे कि इस सिद्ध पीठ बाबा भोलेश्वर जो देवकली के एक भव्य मंदिर में विराजमान हैं। उनके विषय में और आगे खोज करें जिससे इस सिद्ध पीठ बाबा कालेश्वर के अद्भुत चमत्कार पर प्रकाश डाला जाए।
द्वापर युग में जब कौरव तथा पांडव आपसी विद्वेष भाव से हस्थनापुर में निवास कर रहे थे, उसी समय कुंती पुत्र तथा पांडवों के बड़े भाई कर्ण जो दानवीर कर्ण के नाम से जाना जाता था। वह यमुना के उस पार जालौन जिले में पडने वाले कनारगढ़ में अपना राज काज चला रहे थे। जिसे आज करन खेड़ा नाम से जाना जाता है। जो आज टीला में तब्दील हो गया है। कर्ण की माता जिसने पालन पोषण किया था। उसका नाम कर्णवती था तथा पिता पृथु नाम से जाने जाते हैं। इन्हीं महाराज कर्ण की पीढ़ी में हजारों साल बाद दहार नामक स्थान पर महाराज कृष्ण देव का जन्म हुआ जो किसी ऋषि मुनि की संतान कहलायें। इनकी 108 पीढ़ी के बाद राजा वृषभदेव के यहां एक राजा कृष्णदेव का पुनः एक बार फिर जन्म हुआ।
कृष्णदेव राजा ने यमुना के किनारे एक किला का निर्माण कराया जिसका नाम उन्होंने देवगढ़ रखा। यह किला महाराज कृष्ण देव ने संवत 202 ईसवी के आसपास बनाया था। यह वही जगह थी जहां पर आज देवकली का मंदिर बना हुआ है। यहीं पर महाराज ने एक मंदिर बनवाया जिसमें महाकालेश्वर की मूर्ति की स्थापना कराई। इसके साथ ही साथ ईष्ट देवी महामाया मंगलाकाली की भी पूजा अर्चना करते थे। राजा कृष्णदेव के बाद उनकी संतान कुंवर देव आये और उन्होंने भी अपने पूर्वजों की परिपाटी को चालू रखा। परंतु कुंवर देव के बाद जो भी संताने आई वह नास्तिक हो गई और धीरे-धीरे महल खंडहर में तब्दील होता गया, तथा कालेश्वर महाराज का मंदिर विध्वंस हो गया, और राज्य की बर्बादी शुरू हो गई, तथा देवगढ़ का किला यमुना नदी में समा गया।
महाराज कृष्ण जी की की नवमी पीढ़ी में राजा विशोक देव का जन्म संवत 1182 ईस्वी में हुआ। इन्होंने अपने पूर्वजों की राजधानी कनारगढ़ (वर्तमान करन खेड़ा नाम) को पुनः बसाया और वहां पर राज्य करने लगे। संवत 1210 ईस्वी में महाराज विशोक देव का विवाह कन्नौज के राजा जयचंद की बहन देवकला के साथ हुआ। लेकिन काफी समय तक कोई संतान नही हुई। इसी के तहत एक बार महाराज विशोक देव और देवकला पुत्र प्राप्ति की लालसा लेकर बिठूर घाट पर जेठ दशहरा के अवसर पर गंगा स्नान करने के लिए गये। लौट कर आते समय रात हो जाने के कारण उसी देवगढ़ के बियाबान जंगलों में अपना डेरा डाल दिया। वर्तमान समय में जहां पर देवकली का मंदिर बना हुआ है, यह बात संवत 1254 ईसवी की है। इसी बीच समय ने करवट ली और मोहम्मद गोरी की फौज ने पृथ्वीराज चौहान को तराइन के मैदान में संवत 1249 ईस्वी में हरा दिया। और कन्नौज के राजा जयचंद पर आक्रमण कर दिया। राजा जयचंद कन्नौ़ज से भागकर इस्टकापुरी (इटावा) आया यहीं पर बारादरी नामक स्थान पर राजा जयचंद मारा गया।
वहां से आक्रमण करता हुआ मोहम्मद गोरी ने कनारगढ़ के किले पर संवाद 1255 ईस्वी में आक्रमण कर दिया। जिससे कनारगढ़ का किला धराशाई हो गया और हजारों की संख्या में राजा विशोक देव की फौज मारी गई। सेनापति किसी तरह से छिपकर भाग खड़ा हुआ और यमुना के इस पार जहां पर राजा विशोकदेव अपना डेरा जमायें थे। आया और कनारगढ़ के किले को विध्वंशी का समाचार बताया। राजा विशोकदेव व महारानी देवकला इस समाचार को सुनकर बहुत दुःखी हुए और अपनी बची हुई फौज को साथ लेकर राजा विशोकदेव ने मोहम्मद गोरी पर आक्रमण कर दिया। जिससे मोहम्मद गोरी जान बचाकर भाग खड़ा हुआ। परंतु कनारगढ़ का किला पूरी तरह से नष्ट हो गया था।
विशोकदेव महाराज ने रानी देवकला से कनारगढ़ चलने के लिए कहा, तब देवकला ने महाराज से कहा कि अब कनारगढ़ में क्या रखा है? अब तो हमारा घर यही पर है जहां हम ठहरे हैं। यह भूमि हमारे पूर्वजों की है।यहीं पर हम एक भव्य महल बना कर रहेंगे और राजकाज का कार्य यहीं से होगा।
महाराजा विशोकदेव ने महारानी देवकला की इच्छा पूर्ति के लिए संवत 1260 ईस्वी में चैत्र माह की नवमी को महल बनाने का कार्य प्रारंभ करा दिया। खुदाई करने पर महल के बीचो-बीच आंगन में एक शिवलिंग (पत्थर की लाट) मिली। जिसे देखकर राजा विशोक देव व महारानी देवकला आश्चर्य चकित रह गये और मजदूरों को उस लाट को उखाड़ने का आदेश दिया। परंतु उस लाट का कोई ठिकाना ना मिला। इस पर महाराज विशोकदेव व महारानी विचार मग्न हो गये। सुबह के समय देवकला पूजा का थाल लेकर जैसे ही चली कि रास्ते में जहां पर वर्तमान समय में महामाया मंगला काली का प्रवेश द्वार सड़क पर है, वहीं पर महारानी देवकला को लड़की स्वरूप में मंगला काली के दर्शन हो गये।
देवी जी ने देवकला से कहा कि महारानी तुम्हारे महल के बीचो-बीच आंगन में जो पत्थर की लाट है वह देवगढ़ महाराज कालेश्वर (शंकर जी) हैं। देवकला ने लौटकर यह बात महाराज विशोक देव को बताई। कहा की यह लाट देवगढ़ महाराज कालेश्वर की है। जिसकी स्थापना हमारे पूर्वजों ने की है। इस पर उस जगह पर महाराज विशोकदेव ने एक भव्य मंदिर का निर्माण का आश्वासन महारानी देवकला को दिया। लेकिन महारानी देव कला को शांति नहीं मिली और इसी लालसा को लेकर स्वर्ग सिधार गई। शिव मंदिर को देखने की उनकी इच्छा अधूरी रह गई। देवकला की मृत्यु के बाद राजा विशोकदेव शोक में डूबते चले गये, और कनारगढ़ का राज्य उन्होंने अपने छोटे भाई गजेंद्र सिंह को सौंप दिया। जिन्होंने जगम्मनपुर का किला बनाकर अपनी राजधानी बनाई। महाराज विशोकदेव ने देवकला की इच्छा की पूर्ति के लिए महल के बीचो-बीच आंगन में शिव मंदिर का निर्माण संवत 1265 ईस्वी में प्रारंभ कर दिया। मंदिर बन जाने के बाद महाराज विशोकदेव ने अपनी प्रिय पत्नी देवकला के नाम से इस मंदिर का नाम देवकली मंदिर रखा। इसके बाद राजा विशोकदेव जंगलों में विचरण करते हुए यमुना किनारे एक टीला पर पहुंचे। वहीं पर अपनी तपस्थली बनाकर तपस्या करते हुए विलीन हो गये।
इस भव्य देवकली मंदिर में आगे वाले भाग में दो ऊंचे-ऊंचे गुंबद बने थे। उनमें से एक पश्चिम की तरफ बना था। उसे शेरशाह सूरी ने चौसा के युद्ध में हुमायूं को परास्त करके इस क्षेत्र में आया और मंदिर पर आक्रमण कर दिया। जिससे मंदिर की पश्चिमी गुम्मद गिर कर धराशाई हो गई। इस पर महाराज विशोकदेव ने उसे श्राप देकर अंधा कर दिया।
श्राप से मुक्ति के लिए शेरशाह सूरी ने यमुना किनारे विसरात बनवाई जो आज भी बनी हुई है, जो खंडहर में तब्दील हो रही हैं, तथा एक गुंबद गिराने के बदले में उसने यमुना किनारे एक मंदिर भी बनवाया जिसमें भगवान राम, लक्ष्मण तथा सीता की प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा की गई। तभी से इस कालेश्वर महादेव जी के मंदिर में भक्तों द्वारा पूजा अर्चना की जा रही है, और हजारों भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण हो रही हैं। इस मंदिर पर सावन के महीने में पडने वाले सोमवार को कालेश्वर महाराज का जलाभिषेक करके अपनी मनोकामना को पूर्ण करते हैं। आशा है की पाठकगण इस सिद्धपीठ कालेश्वर मंदिर के विषय में जानकारी प्राप्त कर हर्षोलाषित होंगे।